वो दिखताबड़ी हवेली सा, कोई बुढ्ढि सहेली सा, एक पहेली सा घर,
पॅहरो की धूप-छाँव में लगता था जैसे कोई ख्वाब रुपेहली सा घर,
वो घर की जिसकी बेफ़िक्र छत से बचपन की हिकायते जन्मी थी ,
वो कॉंक्रीट और ईंटो का ढाँचे सा , वो उम्मीदों की भारी थैली सा घर,
भाई का बड़प्पन, मेरा लड़कपन, गुज़रे से कल में साँस लेता है वहा
कटी पतंगो को पकड़ने आज भी पीछे किसिका बचपन दौड़ता है वहा
छत के उपर से गुज़रते तार में आज भी फसते है किसी और के रंग,
हम दो भाई बारी बारी से जहा फिरकी पकड़ते थे और उड़ाते थे पतंग,
फिर अपनी पतंगो को छोड़ मेहता जी की छत पे दौड़ जाते थे हम दोनो,
जब भी वाहा कोई लूट किसी पतंग की दिख जाती, लड़ते थे हम दोनो,
बड़े खुश हुआ करते थे लड़ाई में और प्यार से जुड़े पतंग-माँझे में हम,
और फिर बड़े होते ना जाने कहाँ से वो लूट पतंगो की घरो में बदल गयी ,
कब ये रिस्ते भी काग़ज़ की पतंगो से फटने लगे, डोर भी कटती गयी ?
फटी पतंगो को तब हम चावल के उबले दानो से रफू करके उड़ाते थे,
रिस्तो को जो रफू कर दे ऐसे चावल, अफ़सोस हम ना कभी उगाते थे,
इस संक्रांति शहेर से में आया हू,
दीवार से उसका घर और मौत से मेरा भाई जुदा है,
देखता हू यादो के भूतकाल से,
छत के उस हिस्से में, मेरा बेटा पतंग लूटने कुदा है
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