Friday, April 23, 2010

एक मामूली मोहरा

काली-सफेद सी बिछी बाज़ी पे,
अपनी सेना के आगे खड़ा,
एक मामूली मोहरा,
एक पायदल की होड़ में,
इंतेज़ार में सर उठा के,
बादशाह पे उठे वार सिने पे झेलने खड़ा,
एक मामूली मोहरा,

खूद एक सफेद खाने में खड़ा काला मोहरा,
हाथ में तलवार लिए खड़ा है, आँखे गड़ाए दुश्मन पे,
और फिर खिलाड़ी के हाथों से उसकी सोच पे,
आगे बढ़ता है, कदम-ब-कदम, एक नये खाने में,
खुद फ़ना होना है राह में, या अपने से किसी और रंग के,
किसी एक मामूली मोहरे को ख़त्म करना है,
किस्मत हुई तो एक बड़े मोहरे से भी खेल जाएगा ये,
सफ़र के अंत तक बचाता रहेगा बादशाहो को वो,
फ़ना होके फिर एक नयी बाज़ी पे बिछेगा,
पर उस बाज़ी पे भी वो रहेगा एक मामूली मोहरा,
बादशाह बनने की चाह भी कभी बादशाह ना बनाएगी उसे,
ये बाज़ी हार भी गया, मारा भी गया किसी गोरे मोहरे से,
तो भी सिकश्त उसकी ना होगी, क्योंकि,
मामूली या ख़ास कोई भी,
मोहरे कभी शिकस्त- झदा नही होते है,
हार और जीत सिर्फ़ खिलाड़ी की होती है

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