Friday, April 23, 2010

उम्मीदों का शहर

आस के वीरान जंगल में, उम्मिदो के कई शहर बसते है,
सब बाशिंदे, ख्वाब से सिकुड के घरों में महफुज़ रहते है,
भरे भरे से हमेशा, उम्मिदो के गाँव, कभी खाली नही होते,
हर घर यहाँ, अपने ही या किसी और के हाथों से बनते है,

जब धीरे से, आहट को दबाए, खोला पहले घर का दरवाज़ा.
देखा तो अपने माँ-बाप के ख्वाबों में मुझको बनना था राजा,
फिर दूसरे घरों की और, एक बॉज़ के साथ बढ़ता रहा तो,
देखा मेरे बच्चों के भी ख्वाब भी इसी शहर में ऐसे रचते है,
उनके लिए कुछ अप्रतिम सी उँचाइयाँ सर करनी है और कही
संगनी की खातिर घरों में अलग ग़ज़लें-महल भी पलते है,

फिर इस शहर के किसी कोने में लावारिस एक खन्डर देखा,
सूम-सान सा लग रहा था तो मैने झाँक के थोड़ा अंदर देखा,

एक टूटी चार पाई पे, एक बीमार, अपाहिज़ उम्मीद पड़ी थी,
सालों पहले कुछ कर दिखाने की, मुझमे जो एक ज़िद बड़ी थी,
भूल गया था कब से इसके बारे में यहा फिर मिल गये हम,
तुमको विकलांग बनाते वक़्त जैसे, दोनो हीथे सहम गये हम,
फिर आज यहाँ उम्मिदो के खंडहर में भूले यार से मिल गये हो,
ये जो पर तुम्हारे, मैने अपने हाथो से, गीत लिख सवारे थे,
अब इन परो के पास मखियाँ की आवाज़ पे जुगनू जलते है,

मेरे इस शहर में बस ये घर मेरा है

छत के उपर जब जाके देखता हू,
कितना बड़ा हो गया है ये शहर कुछ सालों में,
कितने घर, कितनी इमारतें,
कितने लोगो की उम्मीदें,
पर ये शहर तो मेरा था ना?
और मेरी उम्मीदें यहाँ,
इस खंडहर के कोने में सीमित क्यों है?

सोचत हू अबकी बार ये शहर जला दूं,
और फिर तिनका तिनका जोड़ के इससे अपने,
नये पंख बनाऊंगा
अबकी बार ये उम्मीदों का शहर मेरा होगा

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