Tuesday, January 18, 2011

ये जग के चाँद - A poem

याद है मुझे, कुछ दिन पहले की ये बात है,
मुन्ने ने ली थी ज़िद, रहना उसको साथ है,
नाइट-शिफ्ट के टाइम कहा उसे ले जाता मैं,
बात घुमा, हर बार नयी लॉरी कोई गाता मैं,
"पापा, कब जाएँगे हम रात में टहलने को",
पौने चाँद को दिखा बोला "उसे पूरा होने दो",

कल सुबह ऑफीस से जब में घर लौटा तो,
देखा सुबक़ सुबक़ कोने में बैठ था रोता वो,
"किसीने हमारी बात सुनी थी, कोई तो नया है,
हर रात चाँद को काट काट के घर वो ले गया है,
"हम टहलने ना जाएँगे, उसने हम दोनो को लूटा है,"
कैसे बताता उसको मैं, एक काम था वो भी छूटा है,
अब कोई ना नाइट शिफ्ट है, कोई पैसा ना आएगा,
अमावस के चाँद सी ही रोटी भी घटती अब खाएगा,
सुबह फिर हम दोनो चुपचाप दुखीसे सो गये यहाँ,
फिर आज रात दौड़ के आया, बदल रहा था जहाँ,
"पापा चाँद फिर आया है, काफ़ी सुख गया है लेकिन"
क्या आपको लगता है, हम टहलने जाएँगे एक दिन?
चाँद के पूरे होने की हरदम, ऐसे ना बेटा तू राहें देख,
तू ही मेरा पूरा चाँद है, किसी और चंदा की बातें फेंक,
चल आज संग चलते है, शीतल चाँदनी में हम साथ नहाएँगे,
ये जग के चाँद बढ़ घट के किसी दिन साथ हमारे हो जाएँगे

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