मेरे पास थी एक घड़ी सुनहरी,
साथ मेरे वो रहती थी,
सुबहा शाम वक़्त दिखलाके,
साथ मेरे वो चलती थी.
उसकी हर टिक-टिक पे मैने,
हर लम्हा अपना किया था,
उसकी दो सुईओ पे मैने,
जीवन अपना छोड़ दिया था,
हर लम्हा अपना किया था,
उसकी दो सुईओ पे मैने,
जीवन अपना छोड़ दिया था,
उसकी थी एक आदत ऐसी,
वक़्त से आगे वो रहती थी,
और मेरा हाथ पकड़ के,
मुजको भी दौड़ाती थी
वक़्त से आगे वो रहती थी,
और मेरा हाथ पकड़ के,
मुजको भी दौड़ाती थी
आज घड़ी बँध पड़ी है मेरी,
और वक़्त जैसे थम सा गया है,
रुक रुक के में चलता हू,
जीवन जैसे रुक सा गया है;
जब में देखता अपनी कलाई,
वक़्त की लाश दिखती है मुझको,
मरी हुई मेरी घड़ी सुनहरी,
बार बार कहती है मुझको,
और वक़्त जैसे थम सा गया है,
रुक रुक के में चलता हू,
जीवन जैसे रुक सा गया है;
जब में देखता अपनी कलाई,
वक़्त की लाश दिखती है मुझको,
मरी हुई मेरी घड़ी सुनहरी,
बार बार कहती है मुझको,
"रुक ना जाना तू साथी मेरे,
तुझको आगे बढ़ना है,
आसमान को छुना है
तारो को घर लाना है, "
कह गई मेरी घड़ी सुनहरी,
में ऩही तेरे साथ तो क्या,
नया वक़्त तुझे अपनाना है,
लड़ना है, आगे बढ़ना है,
हर् लम्हा जीत के लाना है.
तुझको आगे बढ़ना है,
आसमान को छुना है
तारो को घर लाना है, "
कह गई मेरी घड़ी सुनहरी,
में ऩही तेरे साथ तो क्या,
नया वक़्त तुझे अपनाना है,
लड़ना है, आगे बढ़ना है,
हर् लम्हा जीत के लाना है.
And here is a small poem about those aspirations that we have in our heart at a young exhuberant teenage.
Painting By : Reema Bansal
मेरी चाहत ...
मैं चाहता हू बन पांची कोई,
दूर गगन में मैं उड़ जाऊं,
मैं चाहता हू बन फूल में कोई,
पवन में अपनी खुश्बू बिखराऊँ.
मैं चाहता हू बन नाव में छोटी,
लहरो पे मैं राह बनाऊँ,
मैं चाहता हू बन परबत की चोटी,
उँचे उँचे परबत अंबर छु जाऊं
में चाहता हू बन सूरज में न्यारा,
सारे जग को रोशन कर दू,
में चाहता हू बन चाँद में प्यारा,
सब में प्यार शीतलता भर दू
मैं चाहता हू बन हवा का झोका,
में सारे जग को महकाउ,
मैं चाहता हू बन साज़ अनोखा,
सबके होठों पे बस जाऊं
मैं चाहता हू बन नदिया का पानी,
हरपल पलपल बहता जाऊं,
मैं चाहता हू बन शाम सुहानी,
झिलमिल तारों में खो जाऊं .
मैं चाहता हू में चाहू सबको,
और दुनिया में प्यार बढ़ाऊं,
कभी मैं चाहू मरके भी में,
दूसरो के दिलो में जी जाऊं
1 comment:
Seriously gud poems both these!
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