१८वी सदी के अंत तक दुनिया भर में ये बात ज़ाहिर सी हो गयी थी की एक ना एक दिन इंसानो को गुलाम बनाकर उनका व्यापार करने वाले लोगो को ये व्यापार बँध करना पड़ेगा I जगह जगह जहा पे हिन्दुस्तानी गुलामो को बेचा जा रहा था, गुलामो के हुजूम अपने हुक्मरानो के सामने बग़ावत कर रहे थेI ये कविता ऐसे ही एक ग़ुलाम का गीत है जिसे ५०० और ग़ुलामो के साथ एक जहाज़ पे दक्षिण अफ्रीका ले जाया जा रहा था I दिन भर पतवार पकड़ के महीनो तक नाव आगे बढ़ाने वाले ये ग़ुलाम भारत के हर प्रांत से एकत्रित किए जाते थे! ये कोशिश उनकी मनोस्थिति को समजने की है, वो मनोस्थिति जिससे एक बदलाव जन्म लेता है I
ये शफ्फाक़ थमे से पानी पे,
बेदाग वो बढ़ती लहरे देख,
जो ख़ुद में छुपे हर मोती संग,
आज़ाद आसमान का अक्स दिखलाती है,
हम आसमान में उड़ते उन परिंदो की छबि जैसे,
पानी पे क़ैद तस्वीरे है,
परिंदे उड़ सकते है उनकी तस्वीर नही,
परिंदे उम्मीद की दुनिया में जीते है, तस्वीर नही,
तू आस के खारे पानी से, ये खुरदुरे ना घाव जला,
भूल के सब तू ले पतवार पकड़ और नाव चला
गर याद आए मा का आँचल, गर याद आए बच्चो के खेल,
गर याद आए मेहबूब की आँखें, गर याद आए गाँवो के बैल,
बदन पे साहिब के वार झेल तू, ज़हन से साफ वो यादें कर लेना,
दरिया के पानी को अपने खून से लाल करने की बातें कर लेना,
एक बात बता तेरे ईमान तेरी यादों पे चाबुक न्याय नही है या है,
पर सिर्फ़ बातों से इस जग में कभी कोई इंक़लाब नही आया है,
दर्द से लिख तू अपनी किस्मत, यादो का तू ताव चढ़ा,
सोच ये सब तू आगे बढ़,ले पतवार पकड़ और नाव चला
ये उधार की साँसें, ये बीमार से दिन, कोई मौत के जैसा है ज़रूर,
जो इंसानो से जीने का हक छिने वैसा इस ज़ालिम का है फितूर,
छोड ये मौत से भरा जीवन, मौत से मिलकर जीना सीख,
ले पतवार उसे कलम समज, मार उसे अपनी कथनी लिख,
गर सारे हम साथ हो तो फिर, कमज़ोर नही हम ताक़त है,
मौत मरे तो अपनी हो, जिए अपना ही जीवन ये चाहत है,
आज़ादी के अंगारो को तू अपने खून का घी-तेल पीला,
हो फ़ना आज़ादी पे तू ,ले पतवार पकड़ और नाव चला
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