Saturday, December 14, 2013

A poem after verdict on article 377

एक निराकार मन की आशा,
का मुझ पे है, अभिशाप ये क्या?
अपने भी नहीं अपनाते है, 
ऐसा मेरा अपराध है क्या?

एक बार अगर, बँध जाए जो,
कोई उर-उर्मि के बंधन से,
दुनिया उसकी, बस दो नैना,
मलिन न होता, वो अंजन से,
कंगन से फिर कंगन मिलते,
औ' आलिंगन, आलिंगन से,

तब जाती-लिंग-वर्गो का भेद,
करने को आत्मसात है क्या?
अपने भी नहीं अपनाते है,
ऐसा मेरा अपराध है क्या?

हाजी कोई, कोई पादरी,
कोई वेदो के श्राविक है,
आदम-ईव का, रिश्ता इनको,
लगता बहुत स्वाभाविक है,
संयम परहेज़ या ब्रह्मचर्य,
बतलाओं सब, क्या दैहिक है?

अपनी पसंद की प्रीत यहाँ,
कर सकते बस अभिजात है क्या?
अपने भी नहीं अपनाते है,
ऐसा मेरा अपराध है क्या?

ये इस्मत के उतार लिहाफ़*,
तुम बल अपना दिखलाते हो, 
मीरा** की तुम अगन न समझो,
उसे साफ प्रेम सिखलाते हो, 
हम को देकर ये मृत्युदंड, 
अब भाई को गले लगाते हो, 

तुम लोग तो हो भरमाये लोग,
तुमको सत सब अभिज्ञात है क्या?
अपने भी नहीं अपनाते है,
ऐसा मेरा अपराध है क्या?

एक निराकार मन की आशा,
का मुझ पे है, अभिशाप ये क्या?
अपने भी नहीं अपनाते है,
ऐसा मेरा अपराध है क्या?

* इस्मत चुगताई की कहानी लिहाफ़(जो समलैंगिक रिश्तों पे लिखी गयी थी) के लिए उनपे मुक़द्दमा चला था
**मीरा नायर की Fire फिल्म के लिए भी कई लोगो ने उनका विरोध किया था

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