Tuesday, January 18, 2011

हम बुलबुले तो है, पर ये गुलशितान मेरा नही - A poem

Wrote sometime last year after the various blasts and train derailment etc.

वो जो जल रहा है कही, वो बदन मेरा नही,
वो बेवा मेरी नही, बच्चों पे कफ़न मेरा नही,
हम बुलबुले तो है, पर ये गुलशितान मेरा नही,
जो चाहा था वैसा रहा ये हिन्दुस्तान मेरा नही,

वो तो कोई तेज़ उड़ती चिड़िया थी सोने की,
उसको नादान हमने कोई गुड़िया सी होने दी,
ये गिद्ध कौन है, जो चिड़िया के अंडे खा रहे है,
गुड़िया के जिस्म को बेच बेच दौलत पा रहे है,
गर हम-वतन है ये, तो ये हम-वतन मेरा नही,
जो चाहा था वैसा रहा ये हिन्दुस्तान मेरा नही,

मातृभूमि के वीर की राह में जो फूल बीछे मुरझाए,
बारूद की एक-एक फूँक में सारे राख बन उड़ जाए,
कहीं पैसो की लालच में अब कौभान्ड बनाए जाते है,
कही लाशों पे चल राम के सारे स्वांग रचाए जाते है,
सीता को लज्जित करे वो भगवान मेरा नही,
जो चाहा था वैसा रहा ये हिन्दुस्तान मेरा नही,

जिनके खून के रंग भी बसंती रंग गये थे कभी,
जिनकी हर एक साँस में आज़ादी ही थी बसी,
उनके नाम पे राहे है पर उनका मान ठहरा नही,
हम बुलबुले तो है, पर ये गुलशितान मेरा नही,
जो चाहा था वैसा रहा ये हिन्दुस्तान मेरा नही,

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