Wednesday, December 9, 2009

A Poem : Sunset at Marine Drive

सूरज डूब रहा है, गोल रोटी सा दूधिया पानी में,
खिचड़ी याद आती है, जो थी बीरबल की कहानी में,
दो रोज़ हुए मेरी खुद्दारी से भूख ने जंग सी ठानी है,
गाली खाई, है खाई मात, ये हवा भी तो सुहानी है,
आगे बैठे है इन दो जिस्मो की भूख अलग सी लगती है,
पिछे उन बड़ी इमारतो में सौदो की भूख अलग ही रहती है,
बचपन की याद तसवीरो सी आसमान पे दिखती है,
मेरी तीन-पहिया साइकल के पीछे, मा खाना ले चलती है,
लहराते इन बालों को देख याद आते है, मेरा गाँव, गेहू के खेत,
जहा कभी तुम ताने घूँघट लाती थी, झुंका के संग भाखर को सेक,
फिर एक मौसम बरसात ना आई, फिर एक मौसम बरबादी थी ,
जिस रोज़ आया था यहा पे कमाने में, तब छोटि की भी शादी थी,
अब कोई साथ नही है, अब खुशी वाली कोई भी बात नही है,
भूख है, और भूख के बाद, याद नही अब कुछ है,
थोड़े से जो पैसे मिलते, तुमको भेजा करता हू,
फिर कभी सागर के आगे ढलते सूरज संग ढलता हू,
वो देखो,
सूरज डूब रहा है, गोल रोटी सा दूधिया पानी में,
भूख की आग लगी है जैसे बुढ़ापा हो जवानी में,
उसपे भी ये बात, कल कुछ लोगो ने बतलाई
मुझेचोरी की है रोटी ये जो आज यहा में ख़ाता हू,
वो कहते है ये मेरा देश नही, वो कहते है, में यहा क्यों आया हू,
वो कहते है मेरी वजह से कुछ लोग यहा पे भूखे है,
वो कहते है में यहा रुकु तो , खून के नाले छूटेंगे,
क्या बताउ उनको, मुझको उनकी बात का डर नही,
तुम मारो या मरु में भूख से, वापस नही में जाऊँगा,
जब तक हू यहाँ, जब तक हू ज़िंदा, ये भूख मेरे घर
नहीतुम सियासत के पाले हो तुम भूख की बातें क्या जानो ,
यहा आओ , बैठो मेरे पास, देखो,
सूरज डूब रहा है, गोल रोटी सा दूधिया पानी में,

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