Origin of Life on earth is a very interesting subject. As interesting as origin of society and Humanity is. Some of the researchers says that human beings are creature from another planet who landed on earth in some collision billions of years ago. Well if that is true there, far away in some corner of this universe would be a planet, where there would be a person who looks like me, but would he be thinking like me? Over ages we developed society, we developed identities. We developed the concept of "You" and "me". We developed ways to divide resources, we developed ways to create our own individuality along with which came the idea of superiority and inferiority. We developed the idea of being "better". There is a lot that has been added to humanity after its creation. Do you think this would be different from that image of mine on some other planet? Here is a poem on those lines
एक
-Jaykumar Shah
कायनात-ए-बिसात में एक दिन बेफ़िज़ूल टहेलते इंसान को,
एक क़ौम, एक सोहबत, एक दुनिया मिलेगी है अभी अंजान जो,
उस क़ौम की समज अलग होगी हमसे, आदाब भी अलग होगा,
उनके सफ़र में उनसे ना खुदा होगा अलग, ना नाखुदा अलग होगा,
हर शक्स अपनी तकदीर लिखेगा, और खुद ही ढोयेगा अपनी कश्ती,
बेकार के नाम-निशानी के कारण ना होगा बटवारा ना जलेगी बस्ती,
एक आवाज़ होगी, सबका एक ही होगा नाम, क़ौम एक, रंग भी एक,
सब का सब होगा और किसी का कुछ भी नही, खुद एक सब भी एक,
ये एक की गिनती भी नही होगी, ना होगा सब से उपर कभी कोई एक,
एक दिन,
एक दिन मिलेगा कोई ऐसा कायानत-ए-बिसात में कोई ऐसा,
सोचता हू, क्या बात करेगा इंसान तब उस क़ौम से?
सोचता हू, उस क़ौम की नज़र में होगा इंसान का ये ढंग कैसा?
सोचता हू, क्या वो कुछ सीखेंगे हम से, या हम उनसे?
"हम खुदा से है, हम अलग है, में जो हू वो ये नही" कैसे समज़ेंगे वो ?
"में हिन्दुस्तानी, ये अमेरिकी, ये हिंदू, में ख्रिस्ति" कैसे समजाएंगे उन्हे?
कैसे समजाएंगे की हमने ही डुबोया है जो एक घरोंदा था हमारा,
कैसे समजाएंगे की क्या है जंग और क्यों एक ने एक को मारा,
जब वो पूछेगा की क्या ज़रूरत है क्या ऐसे नाम के बटवारे की
कैसे समजाएंगे की ये तो फ़ितरत है इस दुनिया में रहने वालो की,
एक बार अगर समजा भी दिया हमने उनको और उन्होने हमें,
कौन सही है, और किसको बदलना चाहिए , ये फ़ैसला कौन करेगा,
या फिर "हम" हम रहेंगे, "वो" वो, अलग थे अलग ही रहेंगे,
हम ना देखेंगे की उनकी भी बातों में भी एक बात है अनोखी सी,
क्या हम कभी अलग ही रहेंगे उनसे भी,
पता नही है मुझे पर मुझे भी इंतेज़ार है उस दिन का, वो एक दिन,
एक दिन,
जब बेफ़िज़ूल टहेलते इंसान को अपना वो रूप मिलेगा जिसे खुदा ने बनाया था
एक
-Jaykumar Shah
कायनात-ए-बिसात में एक दिन बेफ़िज़ूल टहेलते इंसान को,
एक क़ौम, एक सोहबत, एक दुनिया मिलेगी है अभी अंजान जो,
उस क़ौम की समज अलग होगी हमसे, आदाब भी अलग होगा,
उनके सफ़र में उनसे ना खुदा होगा अलग, ना नाखुदा अलग होगा,
हर शक्स अपनी तकदीर लिखेगा, और खुद ही ढोयेगा अपनी कश्ती,
बेकार के नाम-निशानी के कारण ना होगा बटवारा ना जलेगी बस्ती,
एक आवाज़ होगी, सबका एक ही होगा नाम, क़ौम एक, रंग भी एक,
सब का सब होगा और किसी का कुछ भी नही, खुद एक सब भी एक,
ये एक की गिनती भी नही होगी, ना होगा सब से उपर कभी कोई एक,
एक दिन,
एक दिन मिलेगा कोई ऐसा कायानत-ए-बिसात में कोई ऐसा,
सोचता हू, क्या बात करेगा इंसान तब उस क़ौम से?
सोचता हू, उस क़ौम की नज़र में होगा इंसान का ये ढंग कैसा?
सोचता हू, क्या वो कुछ सीखेंगे हम से, या हम उनसे?
"हम खुदा से है, हम अलग है, में जो हू वो ये नही" कैसे समज़ेंगे वो ?
"में हिन्दुस्तानी, ये अमेरिकी, ये हिंदू, में ख्रिस्ति" कैसे समजाएंगे उन्हे?
कैसे समजाएंगे की हमने ही डुबोया है जो एक घरोंदा था हमारा,
कैसे समजाएंगे की क्या है जंग और क्यों एक ने एक को मारा,
जब वो पूछेगा की क्या ज़रूरत है क्या ऐसे नाम के बटवारे की
कैसे समजाएंगे की ये तो फ़ितरत है इस दुनिया में रहने वालो की,
एक बार अगर समजा भी दिया हमने उनको और उन्होने हमें,
कौन सही है, और किसको बदलना चाहिए , ये फ़ैसला कौन करेगा,
या फिर "हम" हम रहेंगे, "वो" वो, अलग थे अलग ही रहेंगे,
हम ना देखेंगे की उनकी भी बातों में भी एक बात है अनोखी सी,
क्या हम कभी अलग ही रहेंगे उनसे भी,
पता नही है मुझे पर मुझे भी इंतेज़ार है उस दिन का, वो एक दिन,
एक दिन,
जब बेफ़िज़ूल टहेलते इंसान को अपना वो रूप मिलेगा जिसे खुदा ने बनाया था
No comments:
Post a Comment