Thursday, October 15, 2009

Poem - 23rd March 1931

A friend's blog inspired this poem.

23rd March 1931
उँची उँची दीवारो के पार, जैल में आज़ादी जन्मी थी,
शहीदो की शाम थी वो, फाँसी से मोहब्बत जन्मी थी,
सह्याद्रि के पर्बत चुप थे, सतलज भी धीरे बह रही थी,
"एक और होता तो वो भी तेरे नाम" माँए कह रही थी,
बिस्मिल के शब्दों को गा, साथ हिन्दुस्तान सारा लेकर
आख़िरी बार चले थे फिर वो, "इंक़लाब" का नारा लेकर

एक भगत था, एक गुरु था, एक देवो का था शुख,
जयघोष उठे थे गलियारो से, आज़ादी को था रुख़,
वो क्रॉस भी हुक्मरानों का, उस दिन बसंती रंगा था,
ना सिंह ना राज थे, वो रंग थे, उनसे बना तिरंगा था,
एक जलते सपने के संग, खौलते खून का पारा लेकर,
आख़िरी बार चले थे फिर वो, "इंक़लाब" का नारा लेकर

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