नूर, हूर, प्यार सी,
आ रही थी दूर से,
थियटरों की रोशनी,
आँख में भरे हुए,
जिसको थी तलाशती,
हाथ में वो हाथ था,
सपने थे बुने हुए,
और उमर का साथ था,
बाप की वो आस थी,
दीप माँ की राह का,
गाँव से शहर तलक
वो बनी थी रास्ता ,
रात की भुजाओं पे,
साँप सा लिपट गया,
धीर चाँदनी की लौ,
राख से उलट गया,
देव दानवों का भी,
था कहर पिघल गया,
हड़बड़हाटों का सब,
था ज़हर निगल गया,
रोष भर वो आदमी,
आदमी रहा नहीं,
काम-भोग-आग से,
भूख में बदल गया,
एक अबोध को कहीं,
नोच नोच खा गया,
रास्तो पे मोम का,
फिर गुबार छा गया,
बाप चैन पा सके,
दोपहर ना रात को,
दो सज़ा के निर्भया,
और ना कोई नाम हो,
चिथडो को नोच कर,
भोंक धार सी कहीं,
खून से लिखा था ज्यों,
नाम भारती कहीं,
और समाज वृद्ध सा,
शांत जैसे बुध्ध सा,
गीत गा रहा कहीं,
भूल जा रहा कहीं,
न्याय से यूँ हार कर,
खुद को खुद से मार कर,
कहें सब तो अच्छा है,
अभी तो वो बच्चा है
No comments:
Post a Comment