आसमान की खातिर थे
चाँद सूरज आमादा,
भर सुबह को बाहों में,
अपने घर से निकला था,
रास्ते सब खाली थे,
रौशनी भी हलकी थी,
ओस-गीले पत्तो ने,
ख्वाब भर सितारों संग,
रात यूँ गुजारी थी,
जैसी मेरी यादों में,
तुम दुबक के आती हो,
चल के थक गया जब में,
बेंच के उस कोने पर,
हांफता सा बैठा था,
रास्ते पे तब जाने,
कोहरे की परतो से,
चाँद मैला निकला था,
नार एक बैठी थी,
मुझ से दूर कूड़े पे,
जाने कितनी बातें ले,
चेहरा मटमैला था,
चीथड़ों की साडी थी,
आबरू के खूंटे पे,
कितने किस्से साडी की,
गाँठ में छुपाये थे,
वक़्त के थपेड़ो से,
नैन बच के निकले थे,
कोपलो से होंठों पे,
गीत भूले बिसरे थे,
देख कर मुझे उसने,
आँख फिर झुका ली थी,
भौहे खिंची थी जैसे,
उर्वशी हो दिनकर की,
बेशरम सी नजरो से,
ताकता रहा उसको,
अंग की लचक में वो,
थी छबि अजंता की,
पर जवानी पे उसकी,
थी वो भारी मजबूरी,
चंद पैसो को कूड़ा,
चल रही थी चुनने वो,
ज्यूँ चला के अग्नि पे,
परखे कोई सीता को,
सोचता रहा फिर में,
क्यों वो इतनी सुन्दर थी,
कौन सी खुदाई वो,
उसके मन के अन्दर थी,
गौर से जो देखा तो,
जान पाया बातें में,
साथ उसके आँचल में
और भी थी आवाजें,
ये समज में आया है,
चाहे कोई आफत हो,
आबले हो आहों के,
या सफ़र के छालें हो,
रब्बरो सी रोटी या,
कंकरों की दाले हो,
धूंप कोई झुलसाती,
या सियाही रातो की,
चीथड़ों की छन्नी से,
छान के जब आती है,
लोरियों सी लगती है,
सुनके आज वो बच्चा,
गोद में माँ की देखो,
आँख मूंद सोया है,
जैसे कोई मंदिर में
मूरति हो कान्हा की,
खूबसुरती उसकी,
खूब उसके अन्दर है,
अपनी हो या गैरों की,
माँ हमेशा सुन्दर है
(Structure notes : Tried keepting it 212 (1 or 2) 222 like the nazm on bhookh by Javed Akhtar. Might have missed at places as did not bother about it while writing)
Thursday, October 25, 2012
मटमैला चाँद - Nazm
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